• हिंदी की शक्ति और मुक्ति के रास्ते

    10 तारीख को विश्व हिंदी दिवस मनाया गया। दिवस होने में कोई हर्ज नहीं। मगर दुनिया में इतनी बातें हैं किस किसका दिवस मनाएं

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    - संदीप सिंह

    महात्मा गांधी कहते थे एक हिंदी है जो सत्ता या सरकार बोलती है। दूसरी हिंदी है जिसे जनता या लोक बोलता है। दूसरी हिंदी को वे हिंदुस्तानी कहते थे। जिसमें हर भाषा, इलाक़े और मिज़ाज के शब्द भरे पड़े हैं। गांधी वाली हिंदी किसी भी भाषा के अच्छे और अपने काम के शब्द को खट से अपना लेती है इसलिए सरकारी हिंदी जिसे अधिशासी अभियंता कहती है हिंदुस्तानी हिंदी उसे इंजीनियर कहकर अपना काम बखूबी चला लेती है।

    10 तारीख को विश्व हिंदी दिवस मनाया गया। दिवस होने में कोई हर्ज नहीं। मगर दुनिया में इतनी बातें हैं किस किसका दिवस मनाएं। मनुष्य का जीवन तो पहले क्षण से अंतिम क्षण तक दूसरों पर ही आश्रित है। इतनी अनुकंपा है हम पर कि हज़ार वर्ष पूरी मनुष्य प्रजाति सिर झुकाए रहे तो भी अपने कज़र् के शतांश को चुका नहीं पाएगी। एक छोटी दूब से लेकर नदियों, पहाड़ों, जंगलों और हाथी की सूंड़ तक का हम पर अहसान है। मगर मनुष्य प्रजाति अहसानफ़रामोश ठहरी। खैर!
    तो हिंदी भाषा पर आते हैं। अब यह वह भाषा है जिसे महान दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहा जाए तो-


    मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूं
    वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं..
    तू किसी रेल-सी गुज़रती है
    मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं
    एक बाज़ू उखड़ गया जब से
    और ज़्यादा वज़न उठाता हूं


    ये भाषा हमारे संवाद के जीवन की सांस है, ऑक्सीजन है। संवाद का हृदय प्रवाहमान रहे, स्वस्थ रहे, जीवन की धमनियों में रक्त का प्रवाह प्रबल रहे इसलिए जरूरी है कि सांस का वातावरण दूषित न हो बल्कि खुला हो, व्यापक हो, साफ हो। सांस में जंगल की खेत खलिहान नदी, समुद्र की हवा हो।

    भाषा रूपी हमारी यह सांस वैसी ही होनी है। इसे बंद कमरों से, अधिकारियों से, आयोगों की फ़ाइलों और विश्वविद्यालय के विभागों से नहीं आना बल्कि लोक और जनजीवन के बीच से, उनके दुख-दर्द से, उनके हर रंग को लपेटे हुए आना है।

    हमारी इस भाषा में एक धोबिन की व्यथा, एक चुड़िहारिन की पुकार, एक भड़भूंजे की डांट, एक मल्लाह का गीत, एक ठेलेवाले की चीत्कार, कुलियों की मार, मंदिर के पंडे का प्यार और दुत्कार, संत की अनासक्ति, व्यभिचारी की आसक्ति, एक पुलिस वाले की गाली, एक ग्वाले का गान, झाड़ू-पोंछा की चिकचिक, घर की उदारता और स्वार्थ, एक बुनकर की खटखट, हथोड़ी और बसुले की आवाज, एक सफाईकर्मी की मेहनत, पुर, रहट, डोलची, खांची, खुरपा, कुदाल की आवाज, अधिकारी का भ्रष्टाचार, नेता का सच-झूठ, दम्भ और व्यापार, मां की नि:शब्द ममता, गरीबी की बेआवाज चोट, बच्चे की अनकही चाहत और एक $कुल्फ़ी पर पूरी दुनिया निसारने का मिज़ाज, प्रेम और इशारे का हर अंदाज होना चाहिए। क्रोध भी हो जैसे जीवन में आता है। हमें हमारा डर भी दिखाए हमारी ये प्यारी भाषा। कुकड़ुकूं जैसी।

    महात्मा गांधी कहते थे एक हिंदी है जो सत्ता या सरकार बोलती है। दूसरी हिंदी है जिसे जनता या लोक बोलता है। दूसरी हिंदी को वे हिंदुस्तानी कहते थे। जिसमें हर भाषा, इलाक़े और मिज़ाज के शब्द भरे पड़े हैं। गांधी वाली हिंदी किसी भी भाषा के अच्छे और अपने काम के शब्द को खट से अपना लेती है इसलिए सरकारी हिंदी जिसे अधिशासी अभियंता कहती है हिंदुस्तानी हिंदी उसे इंजीनियर कहकर अपना काम बखूबी चला लेती है।

    सरकारी हिंदी दूसरी भाषाओं से डरती है इसलिए अपने बोलने वालों को भी डराती है। और अंत में अपना ही नुक़सान करती है। गांधी जी वाली हिंदी किसी से नहीं डरती सबको प्रेम से गले लगाती है। आज तक हिंदी भाषा के साहित्य, कविता कहानी और सिनेमा को जो भी लोकप्रियता मिली है वह सरकारी हिंदी नहीं हिंदुस्तानी हिंदी को बोलने, परखने और इस्तेमाल करने से मिली है।

    मगर यहीं दूसरी बात भी आती है कि हमारी इस सांस का, हमारी हिंदी का अपनी बाकी बहनों से क्या नाता है? कैसा रिश्ता निभा रही है हमारी हिंदी अवधी, भोजपुरी, ब्रज, बघेली, बुंदेलखंडी से?

    खड़ी बोली से निकली है आज की हमारी हिंदी। 300 साल पहले हिंदी का अस्तित्व न था। तब अवधी, भोजपुरी, ब्रज और रेख़्ते का राज था। तभी बाबा तुलसी और जायसी ने अवधी में, कबीर और रैदास ने भोजपुरी में और सूरदास ने ब्रज में अपना दिल निकालकर रख दिया। उर्दू अभी बनी नहीं थी।

    आज कहां गई ब्रज भाषा? कहां गए उधो और माधो? कहां है भोजपुरी- मनोज तिवारी, रवि किशन और निरहुआ के अश्लील गानों के अलावा? और कहां बची हमारी अवधी- मंगलवार के सुंदर कांड और खेत मजूर की भाखा के अलावा?

    क्या निबाह कर रही है हिंदी अपनी इन सखियों से? अपनी तिजोरी से उर्दू, फ़ारसी, अरबी, के सोने जैसे लफ़्ज बाहर फेंककर क्यों और गरीब हो रही है हिंदी भाषा?
    खुद तो बैठ गई विधानसभा, सरकारी दफ़्तरों और सरकारी कागज़ों में संस्कृति से शब्दों की ओढ़नी ओढ़कर मगर अपनी सखियों को छोड़ दिया वहीं पीछे खेत-खलिहान, हाट बाज़ार और गरीबी में।

    हां, अंग्रेज़ी के सामने अभी भी पिट रही है हमारी हिंदी क्योंकि बड़े बाबू लोग और लाटसाहब लोग अंग्रेज़ी ही बरतें- और दुनिया का व्यापार अंग्रेज़ी में होवे- मगर आप देखो एक पिट रही भाषा अपनी बहनों के साथ क्या कर रही है?

    अब सच्चाई की बात- इसमें भाषा का क्या दोष? दोष तो उस समाज है जो भाषा बरतता है। दोष तो इस समाज का है जो अपनी भाषा से इत्ता भी प्यार नहीं करता कि गलत वर्तनी न लिखे। दोष उस प्रभु वर्ग का है जो नीति नियंता है।

    ये प्रभु, नीति नियंता वर्ग स्वयं तो अंग्रेज़ी में खाता, सोता, जीता है, अपने बच्चों को सर्वश्रेष्ठ अंग्रेज़ी स्कूलों में या विदेश पढ़ने भेजता है मगर हमारे आपके लिए रोज़गारविहीन, सम्मानविहीन एक भाषा परोसता है और कहता है गर्व करो कि तुम्हारे पास हिंदी है। फिर आजकल राष्ट्रीय स्तर पर गंवारपन इतना फैला है कि लोग राजभाषा और राष्ट्रभाषा का फर्क जाने बग़ैर हिंदी मां के गले में एक और पत्थर की माला डाल देते हैं।

    स्थिति दिनोंदिन ख़राब होती जाएगी। क्योंकि कोई सोचकर बोलने का साहस नहीं कर रहा है। सब सस्ती लोकप्रियता और सस्ते प्रचार का साधन हासिल कर अपना उल्लू साध लेना चाहते हैं। कोई हिंदी भाषा की आज की हैसियत और भविष्य को लेकर चिंतित नहीं है। एक छली जा रही भाषा रोज जल रही है जिसमें स्वार्थी कभी-कभी हाथ ताप लेते हैं। जब जन ही छला जा रहा तो भाषा का कहना ही क्या।

    हमें एक नयी भाषा नीति चाहिए। एक नया भाषाई संस्कार। जहां मेरी अवधी अपनी पहचान बताने के लिए बार-बार पांच सौ साल पीछे न जाए, जहां मेरी भोजपुरी गर्व से मेरा मत्था उठाए, जहां मेरी ब्रज और बुंदेलखंडी मेरे हुनर और मेहनत की ज़ुबान हो और हिंदी मेरे सम्मान और मेरी पहचान का सबसे महान शब्द। जो किसी की मोहताज न हो। वह दुनिया की पांच सबसे बड़ी भाषाओं में अपना मुक़ाम हासिल करे। अंग्रेज़ी उसे इज्जत से देखे,चीनी और जर्मन भाषा उससे सीखे और रूसी झुककर सलाम करे। ये कूबत है हिंदी में क्योंकि ये कूबत हमारी कौम में है।

    इसके लिए हिंदी को अपनी ठसक मिटानी होगी। अपनी सखियों को सर माथे बिठाना होगा। हिंदी की शक्ति और मुक्ति सभी भारतीय भाषाओं की शक्ति और मुक्ति में ही संभव है अन्यथा नहीं।

    विश्व हिंदी दिवस सहित सभी भारतीय भाषाओं के हर दिवस की बधाई!

    (लेखक कांग्रेस से जुड़े जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं। उनसे @KaunSandeep पर संपर्क किया जा सकता है)

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